Saturday, March 28, 2020

CORONA LOCK-OUT

"So no testing! Makes sense for the narrative... One epidemiological model suggests 25000 infections already. Hopkins study categorically, repeat, categorically states lockdown at the time India has done makes marginal difference.

National lockdown never made any sense, now or later. You lockdown clusters and hotspots, not the country. The mantra only is: test, test, detect, isolate, treat.

India, meaning GOI, the Ministry, the NITI, the regime, slept in January and February. Instead of preparing scenarios, action plans, SOPs, reading the big models, listening to the rush of models and research, what were they doing full time: staking everything on Delhi elections, suppressing CAA protests, inflicting violence in JNU, Jamia, UP killings, Delhi riots, MP Govt fall, Trump jamboree visit...Please draw date wise timelines.

Then when States begin their fight against Corona led wonderfully by Kerala, Modi megalomania is bruised. He specialises in milking disasters. So, with zero thought and preparation, he launches the catchy macho slogan. National Lockdown. And everything turns topsy turvy. What was this NDMA doing? Those fellows. After all, the NDM Act was invoked. Where are their studies, models and reports?

The States were responding well. There were barriers and graded lockdowns. There was no panic, little disruption.
In comes Modi, hell comes. 40 crores migrants unhinged. All production, transport, delivery collapses.. and GOI is fiddling with the definition of essential goods. And they didn't know migrants exist. And mandis and rabi crop. 

The social distancing achieved by States pre-Modi bullshit was better than what exists today. GOI has forgotten about Stage 3. ICMR not seen much with their funny statements and claims. GOI botched big time.

Conclusion: Hats off to all States and their CMs except the UP CM who too suffers from megalomania and has PM ambitions. Shah not seen or felt. Modi endangers us with every broadcast. The economy is finished. The collateral misery is already accomplished. Now if India escapes the wrath of corona, or the damage is not collosal, we should thank: the States for great work; the heat factor; the lower transmission rate of the virus; herd immunity; the throw of the dice and luck.

And if we are still fools enough to give tick marks to Modi and his megalomania, then I can only pity such blindness and irrationality."

Friday, March 20, 2020

CORONA VIRUS

अब जबकि, कोई महामारी अकल्पनीय वैश्विक संकट का रूप लेते हुए हमारे देश में भी कोहराम मचाने को आ पहुंची है तो अहसास होता है कि स्वास्थ्य तंत्र का सरकारी सिस्टम क्यों मजबूत होना चाहिये।

     हम इटली की हालत देख रहे हैं जो जर्मनी और फ्रांस के बाद यूरोजोन की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। आज की खबरों में हमने पढ़ा कि वहां बीते 24 घंटों में कोरोना वायरस के कारण 475 मौतें रिकार्ड की गई हैं, जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि संख्या इससे भी ज्यादा हो सकती है क्योंकि इटली का मेडिकल सिस्टम दुरुस्त न होने के कारण दूर दराज के क्षेत्रों में बहुत सारे लोगों की जांच ही नहीं हो सकी और उनकी मौत को कोरोना प्रभावितों के दायरे में नहीं रखा गया।

     बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद इटली बीते एक-डेढ़ दशक से गहरे आर्थिक संकट से घिरा रहा है। एक दौर में तो स्थिति यहां तक आ गई कि राशि इकट्ठी करने के प्रयासों के तहत सरकार द्वारा जारी दस वर्षों के इतालवी बांड को भी खरीदारों के लाले पड़ गए थे।

   बस...क्या था, अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग ने शोर मचाना शुरू किया कि इटली का सरकारी खर्च बहुत अधिक है और संकट से निपटने के लिये सरकारी खर्चों में कटौती बहुत जरूरी है।

   किसी भी अर्थव्यवस्था में जब सरकारी खर्चों में कटौती की मुहिम शुरू होती है तो उसका सबसे पहला शिकार सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य का सिस्टम होता है। इटली में भी यही हुआ।

     आज जब इटली किसी आकस्मिक महामारी की चपेट में आया तो उसका ध्वस्त हो चुका मेडिकल सिस्टम चुनौतियों से निपटने में अक्षम साबित हुआ। वहां जनता की जरूरतों के अनुपात में पर्याप्त डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की कमी है, चिकित्सा उपकरणों का अभाव है। नतीजा वहां के लोगों को भुगतना पड़ रहा है। खबरें बताती हैं कि जिस रफ्तार से वहां संक्रमण बढ़ रहा है उस अनुपात में लोगों का टेस्ट नहीं हो पा रहा और संक्रमित व्यक्ति वायरस के फैलाव के वाहक बन कर समस्या को और अधिक बढाते जा रहे हैं।

   जरा इस त्रासदी पर गौर करें। अस्पतालों, डॉक्टरों, सहयोगी स्टाफ और चिकित्सा उपकरणों की कमी के कारण इटली में कोरोना से संक्रमित बूढ़े लोगों को ईश्वर के भरोसे छोड़ कर अपेक्षाकृत युवा लोगों के इलाज पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।

   लानत है ऐसे सिस्टम को, जहां फोरलेन और फ्लाईओवर को विकास के मानकों के रूप में स्थापित कर अस्पतालों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों को सरकारी खर्च के लिये बोझ मान लिया गया हो।

     उपेक्षा का शिकार हो कर बिना उचित इलाज के मरने वाला इटली का कोरोना संक्रमित हर वृद्ध व्यक्ति इस अवधारणा के गाल पर तमाचा है जिसमें आम लोगों की चिकित्सा पर खर्च को सरकारों के लिये बोझ मान लिया गया है।
    जहां आर्थिक संकट गहराया, पहली कटौती शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में करो क्योंकि बेशुमार मुनाफे के लालच में जीभ लपलपाती निजी पूंजी इन कमाऊ क्षेत्रों में आधिपत्य स्थापित करने को पहले से तैयार बैठी है। सरकारें अपनी चादर जितनी समेटती जाएंगी, निजी पूंजी की चादर उतनी फैलती जाएगी।

        कोरोना संकट चीन से जाकर यूरोप में पसर गया है और अब एशिया में हाहाकार मचाने को फैलता जा रहा है।

     यूरोप के देश इस संकट से निपटने के लिये निजी पूंजी द्वारा संचालित अस्पतालों पर भरोसा नहीं कर रहे। उनका सरकारी मेडिकल सिस्टम एशियाई देशों के मुकाबले बेहतर है और निजी अस्पतालों की निगहबानी के लिये नियामक तंत्र भी एशियाई देशों के मुकाबले मजबूत और सक्रिय है। तथापि, स्पेन ने कोरोना संकट से निपटने के लिये तमाम निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया।

   स्पेन का यह कदम बताता है कि इतनी व्यापक मानवीय त्रासदी से निपटने में लोगों को निजी अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता और सरकारों को ही सामने आना होगा।

    भारत में भी आज केंद्र और राज्य सरकारें ही सामने आ रही हैं। जैसा भी है, सरकारी मेडिकल सिस्टम ही कोरोना से युद्ध के अगले मोर्चे पर आ खड़ा हुआ है। सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों की छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं, उन्हें लगातार ड्यूटी पर बने रहने के निर्देश जारी किए गए हैं, सरकारी डॉक्टर कई-कई दिनों से अपने घर नहीं जा पा रहे हैं, एक-एक डॉक्टर तीन-तीन डॉक्टरों के बराबर काम कर रहे हैं और सहयोगी स्टाफ पर काम का दबाव इतना बढ़ गया है कि उनमें से अनेक के बीमार पड़ने की खबरें भी आने लगी हैं।

    यह कोई छिपी बात नहीं है कि सरकारी खर्च कम करने के नाम पर देश भर के सरकारी अस्पतालों में जरूरत के अनुसार डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की नियुक्तियां नहीं की गई हैं और हर जगह इनकी इतनी कमी है कि आम लोगों का सामान्य इलाज भी मुश्किल है, महामारी की तो बात ही क्या। यही हाल चिकित्सा उपकरणों की आपूर्त्ति का भी है जो आवश्यकता से बेहद कम हैं।

     आपके पास था सरकारी मेडिकल सिस्टम। जैसा भी था...और बीते दशकों में सरकारों ने इसे जितना भी कमजोर किया हो...वही सरकारी सिस्टम आज कोरोना संकट के सामने मोर्चे पर आगे खड़ा है। आम लोगों का सहारा यही सिस्टम है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितने लोगों का आयुष्मान बीमा योजना का कार्ड बना है और वे इस योजना का लाभ लेकर निजी अस्पतालों के आरामदेह बिस्तर पर जा कर लेट सकते हैं।

    मोदी जी के नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को हमने अभी पिछले वर्ष ही टीवी पर नफ़ीस अंग्रेजी में यह बोलते सुना था कि 'एलिमेंटरी एडुकेशन' और 'मेडिकल सिस्टम' का 'कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन'  होना चाहिये और जो गरीब हैं उन्हें फीस भरने के लिये सरकार अलग से सहायता दे सकती है। नीति आयोग तो देश के तमाम सरकारी जिला अस्पतालों में निजी पूंजी के निवेश के लिये एक कार्य योजना पर काम भी कर रहा है।

    आज नीति आयोग को एक कार्य दल बनाना चाहिये जो इस पर रिसर्च करे कि वर्त्तमान कोरोना संकट से निपटने में तीन सितारा से लेकर पांच सितारा और सात सितारा प्राइवेट अस्पतालों की कितनी और कैसी भूमिका है। आखिर यह राष्ट्रीय आपदा है और देश की गति थम गई है। तो...भव्य और सुविधासंपन्न अट्टालिकाओं में संचालित निजी अस्पताल, जिनके मालिकान देशभक्ति की कसमें खाते रहते हैं, इस व्यापक मानवीय त्रासदी के समय देश के आम लोगों के लिये क्या कर रहे हैं?

      देश अभी कोरोना संकट के दूसरे स्टेज में है लेकिन हालात खराब होते जा रहे हैं और संकट गहराता जा रहा है। इटली का सरकारी मेडिकल सिस्टम यूरोपीय मानकों के मुताबिक ध्वस्त होने के कगार पर जरूर था, लेकिन अभी भी वह आनुपातिक रूप से भारत से बेहतर है। आखिरकार, महज 6 करोड़ 50 लाख जनसंख्या वाला इटली, जिसकी प्रति व्यक्ति आय भारत के मुकाबले बहुत अधिक है, एक धनी और विकसित देश ही है। लेकिन, स्वास्थ्य खर्च में बीते दशक में अपेक्षाओं के अनुरूप सरकारी निवेश न करने का ख़ामियाजा आज उसके आम लोगों को  झेलना पड़ रहा है और जिन बुजुर्गों की बुजुर्गियत पर कभी इटली को नाज हुआ करता था, आज उन्हें मरने के लिये अकेला छोड़ दिये जाने की मर्मान्तक खबरें आ रही हैं।

    गोरखपुर और मुजफ़्फ़रपुर में गरीब, निरीह बच्चों की उचित चिकित्सा के अभाव में बड़े पैमाने पर अकाल मौत ने हमारे ध्वस्त मेडिकल सिस्टम की लाचारी उजागर कर दी थी, लेकिन देशभक्ति और रामभक्ति के शोर में उनके विवश और व्याकुल मां-बाप का करुण विलाप सुना नहीं जा सका। आज कोरोना संकट देश को झकझोरने को सामने है और यह इस देश के लोगों को सोचना है कि सरकारी मेडिकल सिस्टम को मजबूत करने में उनका कल्याण है या नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कार्य कर रहे नीति आयोग के इस दृष्टिकोण में है कि स्वास्थ्य तंत्र के अधिकाधिक निजीकरण में ही स्वास्थ्य समस्याओं का निदान है।

    हम ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि यह आकस्मिक और जानलेवा संकट हमारे देश पर कहर बन कर न टूटे, क्योंकि महामारी का प्रकोप बढ़ने की स्थिति में हमारा मेडिकल सिस्टम इस  संकट को झेलने के लिये आवश्यक आधारभूत संरचना से लैस नहीं है।

      हालांकि, मंदिरों-मस्जिदों-गिरिजाघरों सहित तमाम उपासना स्थलों को बंद किया जा रहा है और उन मूर्त्तियों या ईश्वरीय प्रतीकों को भी विश्राम दिया जा रहा है जिनके सामने हम प्रार्थना कर सकते थे।

   तो...ईश्वर के दूसरे रूप डॉक्टरों, सहयोगी मेडिकल कार्यकर्त्ताओं और उनके मंदिरों के रूप में स्थापित अस्पतालों के ऊपर ही हमारा भरोसा है।

      यह वह समय है जब हमें यह अहसास हो रहा है कि किसी ईश्वर के भव्य मंदिर के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपयों के खर्च से अधिक, बल्कि बहुत बहुत अधिक जरूरी है कि स्कूल और अस्पताल रूपी अधिकाधिक मंदिर बनाए जाएं और उनमें समाज के प्रतिभाशाली युवाओं को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा दे कर डॉक्टर और कंपाउंडर के रूप में नियुक्त कर पूरी मानवता को ईश्वर के दूसरे रूप की छाया दी जाए।


Wednesday, March 11, 2020

झांसी के वंशज

दो राजपरिवार ,एक के वारिस सालों से
ऐश कर रहे हैं और दूसरे के गुमनामी में ।
एक बार फिर से झांसी राजघराने के वारिसों की स्थिति ।

झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ?
वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.

अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.

1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.

महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.

आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं –

15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.

मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.

डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.

इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.

मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.

नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.

असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.

मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.

देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.

मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.

ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.

हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.

उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.

फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.

सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.

इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.

दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।
इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं। जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया। अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।

दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं।

उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार है
इतिहास