Saturday, August 29, 2020

ये कहाँ आ गये हम

 अर्थव्यवस्था की दुर्गति पर स्यापा मचाने से पहले इस पर विचार करने की जरूरत है कि जिन राजनीतिक शक्तियों को देश के अधिकतर लोगों ने सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया है, उनका मौलिक आर्थिक चिंतन असल में रहा क्या है, इसकी सीमाएं क्या हैं और इसके निहितार्थ क्या हो सकते हैं।


      राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जो भाजपा का मातृ संगठन माना जाता है, किसी व्यापक आर्थिक चिंतन के लिये नहीं ,बल्कि अपने विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन के लिये जाना जाता है। भारतीय जनता पार्टी, जो पूर्व जन्म में भारतीय जनसंघ के नाम से जानी जाती थी, अपने वैचारिक आधार के लिये प्रायः संघ पर ही निर्भर रही है।


   आप संघ से वैचारिक विरोध रख सकते हैं, उसकी कटु आलोचना भी कर सकते हैं, लेकिन...जिन सांस्कृतिक-सामाजिक लक्ष्यों को लेकर वह आगे बढ़ा, उनके प्रति उसके समर्पण और धीरज की अनदेखी आप नहीं कर सकते। प्रेरक नेतृत्व, प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ताओं की निरन्तर बढ़ती संख्या और लक्ष्यों के प्रति असंदिग्ध निष्ठा ने उसे आज इस मुकाम पर पहुंचाया है कि देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पदों पर उसके ही अनुयायी विराजमान हैं।


       मध्य भारत के किसी मंझोले शहर की गलियों से निकल कर, दशकों के सफर के उतार-चढ़ाव से गुजरते राष्ट्र की राजधानी के राजपथ पर संघ के अश्वमेध का घोड़ा आज दिग्विजयी अंदाज में  खड़ा है। अपने अनुयायियों की राजनीतिक शक्ति के बूते वह अनेक सांस्कृतिक सवालों को अपनी वैचारिकता के अनुसार दिशा दे रहा है। जैसा कि परिदृश्य है, विभिन्न सवालों पर मचते रहे कर्णभेदी कोलाहलों के बीच उसके समर्थकों की संख्या बढ़ती ही गई है।


   यह समर्थन आधार कैसे बढ़ता गया, जीवन के मौलिक सवालों से कन्नी काटते उसके राजनीतिक पुरोधा कैसे इन सांस्कृतिक सवालों को विमर्शों के केंद्र में बनाए रख सके, कुपोषितों और बेरोजगारों के आत्मघाती समर्थन के साथ ही खाए, पिये, अघाए लोगों का व्यापक समर्थन आर्थिक रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कैसे उनके साथ बना रहा...यह सब विमर्श के अलग अध्याय हैं।


        सांस्कृतिक सवालों से जुड़े लक्ष्य और उन तक पहुंचने की दीर्घ यात्रा के बावजूद भारत जैसे निर्धन बहुल विशाल जनसंख्या वाले देश की राजनीतिक सत्ता पर आरूढ़ शक्तियों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती तो आर्थिक सवाल ही हैं। इनसे जूझने में विफलता उनकी अन्य सफलताओं को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक सकती है क्योंकि,बदलते दौर में अब इतिहास की कसौटियां भी बदल चुकी हैं।


   किसी भी सरकार की सफलता-असफलता की वास्तविक कसौटी तो यही हो सकती है कि उसके शासन काल में जनसामान्य के जीवन स्तर में क्या और कितने सकारात्मक बदलाव आए। 


  इस कसौटी पर वर्त्तमान सत्ता का प्रदर्शन देश की वर्त्तमान आर्थिक हालत के आईने में सहज ही देखा जा सकता है।


  कोरोना कोई बहाना नहीं हो सकता। इसकी आहट से पहले ही देश की अर्थव्यवस्था विभिन्न मानकों पर गोता लगा चुकी थी।


   एक सशक्त सरकार, बेहद लोकप्रिय और ताकतवर प्रधानमंत्री, सिर झुकाए खड़ी अधिकांश संस्थाएं, तर्क से अधिक मतलब न रखने वाला प्रबल जनसमर्थन का आधार...और तब भी आर्थिक मानकों पर विफलता इस राजनीतिक धारा के आर्थिक चिंतन की सीमाएं सहज ही स्पष्ट कर देती हैं।


     समृद्ध राष्ट्र की कल्पना तो अच्छी है, आकर्षक भी है, लेकिन इस तक पहुंचने के रास्तों को लेकर उनकी कोई स्पष्ट सोच कभी देश के सामने नहीं आ सकी, न ही इन मुद्दों को लेकर वे कभी देश के समक्ष खड़े हुए। 'स्वदेशी' जैसी अवधारणाएं वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद की आंधी में कब अप्रासंगिक होने लगीं, इसका अंदाजा उनके पुरोधाओं को भी ठीक से नहीं लग सका।


  बाकी...कोई चिंतन अगर रहा तो वह उनकी किताबों में सिमट कर रह गया क्योंकि व्यावहारिकताओं के धरातल पर प्रासंगिकता कभी उभर कर सामने नहीं आ सकी। 1990 के दशक में सत्ता की राजनीति में उनके मजबूत होने के बाद भी नहीं।


  नतीजा...जब वे सत्ता में आए तो आर्थिक नीतियों को लेकर जो प्रभावी वैश्विक रुझान थे, जिनमें ताकतवर वित्तीय शक्तियों के स्वार्थ निहित थे, वे उन्हीं में बहने लगे। वैसे भी, माना जाता है कि 'राइट विंग' और 'नियो लिबरल इकोनॉमिक फोर्सेज' एक दूसरे को मजबूती देते हैं और निर्धनों के सवालों को नेपथ्य में धकेलने के लिये हर राजनीतिक शोशेबाजी का सहारा लेते हैं।


      भावुक, कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 'देशहित' में सरकारी कर्मियों का पेंशन खत्म कर दिया क्योंकि, जैसा कि उनके वित्तमंत्री ने कहा, "जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है और सरकार रिटायर सरकारी कर्मियों के पेंशन का आर्थिक बोझ अब और नहीं उठा सकती।"


    सरकारी संपत्तियों को निजी और विदेशी हाथों में सौंपने के लिये उन्होंने बाकायदा एक विनिवेश मंत्रालय का गठन कर लिया और इस ओर तेजी से कदम भी बढाने लगे। एनडीए-1 के बाद 2 और 3 का यह वर्त्तमान दौर इस रास्ते पर और अधिक आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा है। 


    इस देश में नवउदारवाद की राजनीति कांग्रेस ने शुरू की और भाजपा ने इसे निर्णायक मजबूती दी। इस संदर्भ में संघ की आर्थिक वैचारिकता किस कोने में खड़ी रही, यह देश के लोग कभी समझ नहीं पाए।


   निजीकरण...इससे आगे बढ़ते हुए अंध निजीकरण...हर मर्ज का इलाज इन्हीं में ढूंढने वाली राजनीतिक धारा इस देश की मौलिक समस्याओं के संदर्भ में कितनी और कब तक प्रासंगिक है, यह बड़ा सवाल है।


  एक उदाहरण यहां प्रासंगिक है।


     इतिहास बताता है कि 1969 में जब भारत सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो तत्कालीन भारतीय जनसंघ ने इस कदम का पुरजोर विरोध किया था। यही नहीं, उसने 1971 के अपने घोषणापत्र में यह वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आया तो इस निर्णय को पलट देगा।


    क्या यह वादा देश की बहुसंख्यक गरीब जनता से था, जिसके आर्थिक हितों के संदर्भ में बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक सकारात्मक कदम साबित हुआ था? या यह वादा उन बड़े पूंजीपतियों से था जिनके आर्थिक हितों को इस कदम से चोट पहुंची थी?


       1969 में जिन 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, उनके पास देश की कुल पूंजी का 70 प्रतिशत था। इन बैंकों में जमा पैसों को उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जाता था जो अधिक मुनाफे की सम्भावना वाले थे। जाहिर है, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन में बैंक बहुत पीछे थे। बैंकों के मालिक, जो बड़े पूंजीपति थे, बैंकिंग व्यवसाय से हुए मुनाफे को तो आपस में बांट लेते ही थे, जनता के जमा पैसों से कर्ज भी खुद की कंपनियों के नाम से ही ले लेते थे। कृषि, लघु उद्योग सहित अन्य सामाजिक क्षेत्रों में कर्ज का अनुपात बेहद नगण्य था।


   राष्ट्रीयकरण के बाद परिदृश्य ही बदल गया, जब बैंकों ने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में अपनी भूमिका को विस्तार दिया। जाहिर है, बीते दशकों में हुई देश की आर्थिक प्रगति में बैंकों की बड़ी भागीदारी रही है।


  लेकिन...तब के भारतीय जनसंघ ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रबल विरोध किया था और आज की भारतीय जनता पार्टी की सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बैंकों के निजीकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है।


   रेलवे सहित अन्य बड़े सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की ओर सरकार के बढ़ते कदम भी उन्हीं प्रवृत्तियों की ओर संकेत करते हैं जो कारपोरेट शक्तियों के हितों से प्रेरित हैं।


    जब किसी राजनीतिक धारा के पास अपना स्पष्ट आर्थिक चिंतन नहीं होता तो सत्ता के साथ जुड़े आर्थिक दायित्व उसे दिशाहीनता की ओर ले जाते हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ यही हुआ और हो रहा है। उधार के चिंतन और हायर किये गए आर्थिक सलाहकारों, जिनकी संदिग्ध कारपोरेट निष्ठाएं सवालों के घेरे में रही हैं, के चिंतन से आप जहां तक पहुंच सकते हैं वहां पहुंच गए हैं। 


  और...जहां पहुंचे हैं वहीं तो 45 वर्षों के उच्चतम स्तरों पर पहुंची बेरोजगारी है, जमीन सूंघती विकास दर है, दिवालिया होने के कगार पर पहुंचे बैंक हैं, धनपतियों की जागीर बनती रेलवे है, कुछेक हाथों में सिमटती जा रही देश की अगाध संपत्ति है।

    पता नहीं और क्या-क्या हुआ है, क्या-क्या हो रहा है...आमजन तो समझ ही नहीं पा रहे। बस..वे त्रासदियों को झेल रहे हैं, आने वाली त्रासदियों को लेकर आतंकित हो रहे हैं।


  और...जैसा कि इस तरह की राजनीतिक शक्तियों की विशेषता होती है, आर्थिक त्रासदियों से गुजरते जनमानस को भटकाने के लिये, उसके नकारात्मक मानसिक तुष्टिकरण के लिये एक से एक भावनात्मक मुद्दे, एक से एक राजनीतिक प्रहसन के सिलसिले बनते और चलते रहते हैं।

     हालांकि...ये सिलसिले देशों को अंधेरी खाई के अलावा कहीं और नहीं ले जा पाते।

Thursday, August 27, 2020

INTERESTING NUMBERS

 SomeVery interesting numbers, simply put......


The current population of Earth is more than 7 Billion.

The statistics can tell us the numbers, the distribution, various races and other information of the population.


As the population is so large, a purely statistical report, for most people, would not make meaningful sense. Therefore, someone has produced this set of statistical report condensing the 7 billion in the world into 100 persons, and then into various percentage statistics. The resulting analysis is relatively much easier to comprehend.


Out of 100:


11 are in Europe

5 are in North America

9 are in South America

15 are in Africa

60 are in Asia


49 live in the countryside

51 live in cities


12 speak Chinese

5 speak Spanish

5 speak English

3 speak Arabic

3 speak Hindi

3 speak Bengali

3 speak Portuguese

2 speak Russian

2 speak Japanese

62 speak their own language.


77 have their own houses

23 have no place to live.


21 are over-nourished

63 can eat full

15 are under-nourished

1 ate the last meal, but did not make it to the next meal.


The daily cost of living for 48 is less than US$2.


87 have clean drinking water

13 either lack clean drinking water or have access to a water source that is polluted.


75 have mobile phones

25 do not.


30 have internet access

70 do not have conditions to go online


7 received university education

93 did not attend college.


83 can read

17 are illiterate.


33 are Christians

22 are Muslims

14 are Hindus

7 are Buddhists

12 are other religions

12 have no religious beliefs.


26 live less than 14 years

66 died between 15 - 64 years of age

8 are over 65 years old.


If you have your own home,

Eat full meals & drink clean water,

Have a mobile phone,

Can surf the internet, and

have gone to college,

you have little reason to complain.


Amongst 100 persons in the world,

only 8 can live or exceed the age of 65.


If you are over 65 years old be content & grateful. 

You did not leave this world before the age of 64 years like the 92 persons who have gone before you.

 You are already the blessed amongst mankind.

Wednesday, August 26, 2020

A TRIBUTE TO Com. D.P. DUBEY



Today at 7/40 am Comrade D P Dubey , general secretary

of FMRAI for 22 years , from 1991 to 2013 , breathed his last at a Kolkata nursing home after protracted illness. The news had gone viral within minutes and condolence messages poured in social medias in large numbers.


Comrade Dubey took over the key post of FMRAI from Com.J S Majumder during a crucial time when people of  India could learn that LPG had another abbreviated version of Liberalisation, Privatisation and Globalisation other than Liquid Petroleum Gas ! Many had their fingers crossed about the capability and capacity of Comrade Dubey to tide over the situation and ability to lead after taking the baton from Com. J S Majumder who had built up the organisation to a great height by then.


However, Comrade Dubey, whatever may be his limitations, shortcomings or omissions and commissions, very quickly tightened his belt and rose to the occasion to lead from the front to mobilise the grass root members and leaders down the level to face onslaught of the management and the government duo. During his tenure, FMRAI had organised series of struggles including strike actions , general and company wise both , achieved bargaining status and grievance committees in many companies, lodged legal battles wherever needed, compelled the government to lend it's ears to FMRAI 's demands , bring ministry on the table for discussion and also established FMRAI as a force to reckon with on national trade union arena. Though his companion leaders and large number of members in general had magnificently joined hands together, but his credibility to unite and inculcate the fighting spirit over and above is a matter of record for appreciation. 


Over the years, due to the aging process and for combined ailments, he was looking tired at times but nevertheless he continued to deliver the goods to suit the needs of the organisation. Some of us who have seen him for years , rising from the general secretary of CRU to joint general secretary and then to the general secretary  of FMRAI,could feel his pain and agony to match the needs of the organisation. Even then he tried his best to fulfill his commitments. But could not beyond 2013....and he retired hurt . 


Struggling for a considerable period against his ailments he surrendered... leaving his memories and unfinished tasks to be completed by all of us.


During 22 years , from 1977 to 1999, India had nine prime ministers: Morarji Desai , Indira Gandhi , Rajib Gandhi , V P Singh , Chandrasekhar , I K Gujral , P V Narashimha Rao , Deve Gowda and A B Vajpayee .


During 22  years FMRAI had one general secretary elected unopposed 7 times ......

   


                                          

 

Monday, August 24, 2020

ध्यानचंद

  मेज़र ध्यानचंद 115वीं जयंती : ~

घनी रात थी , चांद रोशनी देने के यकीन से चमक रहा था  । नीचे हरे मैदान में 17-18 साल का एक लड़का हॉकी खेल रहा था । सब देख खूब हंसे , "गर्लफ्रेंड से मिल आए हो " जैसे सवालों से चिढ़ाया भी , पर सैनिक ध्यान सिंह बेफिक्र होकर हॉकी खेलता रहा । चेले की लगन देख , सूबेदार बाले तिवारी खुश होकर बोले, "चांद की रोशनी में जैसे मेहनत कर रहे हो । एक दिन हॉकी का चांद बनकर चमकोगे । मैं आज से तुम्हें ध्यान सिंह नहीं ‘ध्यानचंद’ कहकर पुकारूंगा " । यहीं से शुरू होती है हॉकी के उस खिलाड़ी की कहानी, जिस बाद में दुनिया ने जादूगर नाम दिया ।


29 अगस्त, 1905 को ध्यानचंद पैदा हुए । इनके पिता का नाम समेश्वर सिंह था , जो आर्मी में थे। ध्यानचंद के छोटे भाई भी हाकी खेलते थे। ध्यानचंद का परिवार झांसी में बस गया था । ध्यानचंद को अपने बचपन के दिनों में पहलवानी पसंद थी । वह 16 साल की आयु मे आर्मी में भर्ती हो गए । ध्यानचंद केवल आर्मी हॉकी और रेजिमेंट गेम्स खेलते थे । ध्यानचंद ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे , उन्होंने केवल छठवीं तक पढ़ाई की थी । इसके पीछे कारण यह था कि उनके पिता का हमेशा तबादला होता रहता था , जिसके कारण उन्हें स्थायी रूप से पढ़ने का मौका नहीं मिला ।

ध्यानचंद अभूतपूर्व प्रतिभा के धनी थे। उनके खेल के दौरान भारत ने ओलम्पिक में तीन गोल्ड मैडल जीते थे। ये गोल्ड मैडल 1928, 1932 और 1936 में जीते गए । ध्यानचंद का पहला विदेशी दौरा 1926 में हुआ था , जब हॉकी टीम मैच खेलने न्यूजीलैंड जा रही थी । 1928 में एम्सटर्डम में खेल के दौरान ध्यानचंद ने 14 गोल किए । वह सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी थे । 1932 में ओलंपिक फाइनल का मैच के ऐसा मैच था , जिसमें ध्यानचंद अपने भाई के साथ खेल रहे थे। उसमें उनके भाई रूप सिंह ने 10 गोल किए थे। विएना के स्पोर्टस क्लब में ध्यानचंद की चार हाथों वाली मूर्ति लगी है । जिसमें दो हाथों के अलावा दो हॉकी भी बनी हुई है ।


भारत के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार पद्मभूषण से ध्यानचंद को 1956 में सम्मानित किया गया। 

भारत के इस महान खिलाड़ी को अभी तक भारत रत्न से सम्मानित कयो नही किया ? ? ?

हॉकी के जादूगर 42 साल की उम्र तक हॉकी खेलते रहे । बाद उन्होंने 1948 में संन्यास ग्रहण कर लिया । ध्यानचंद के आखिरी दिन अच्छे नहीं थे। वे अंत में पैसों की परेशानी से जूझ रहे थे। उसके 1979 में कैंसर जैसी बड़ी बीमारी से जूझते हुए उनकी मौत हो गयी । वह लीवर के कैंसर जैसी बड़ी बीमारी से जूझ रहे थे लेकिन इलाज के लिए उनके पास पैसे नहीं थे । वह एम्स के जनरल वार्ड में रहकर अपना इलाज करा रहे थे ।



Thursday, August 20, 2020

NDHM A DRIVE FOR PRIVATIZATION OF HEALTHCARE

 NDHM : ~ All Out Drive for Privatisation of Healthcare ~ J.S. Majumdar


In his Independence Day speech this year the Prime Minister has made a ‘major’ announcement. It is about launching of NDHM (National Digital Health Mission). “From today, a major campaign is being launched in which technology will play a big role. The National Digital Health Mission is being launched today. This will bring a new revolution in India’s health sector and it will help reduce problems in getting treatment with the help of technology,” PM has said. 

 What NDHM scheme proposes to do for the citizen’s healthcare? ‘The NDHM will reduce existing gap between various stakeholders such as doctors, hospitals and other healthcare providers, pharmacies, insurance companies and citizens by bringing them together and connecting them in an integrated digital health infrastructure,’ claimed a statement of NHA (National Health Authority) of AB-PMJAY (Ayushman Bharat - Pradhan Mantri Jan Arogya Yojna), which is the main designer and promoter of NDHM under advice of NITI Aayog.     

 It is being introduced at the first instance in six union territories of Andaman & Nicobar Islands, Puducherry, Dadra - Nagar Haveli & Daman and DIU, Lakshadweep, Chandigarh and Ladakh.  

 NDHM healthcare scheme has six parts or six modules for digital interface i.e. digitally to see, hear and talk between the patient, or anybody else about him/her, and other stake holders. The two modules of each citizen will be of ‘Health ID’ and ‘Personal Health Records’. Other modules include other stake holders - ‘DigiDoctor’, ‘Health Facility Registry’, ‘e-Pharmacy’ and ‘Telemedicine’. While modules of personal ID, doctor and treatment facility selection will be with the government; for the other three i.e. ‘Personal Health Records’, ‘Telemedicine’ for online diagnosis and prescription and ‘e-Pharmacy’ for online supply of medicines, private sector will be integrated for creating and operating these modules. “Private stakeholders will have an equal opportunity to integrate with these building blocks and create their own products for the market”, said Indu Bhusan, the NHA chief and its CEO on the launching of the scheme.

 The announcement about NDHM and the propaganda surrounding it through the mainstream media goes beyond Goebbels doctrine camouflaging the real intents. Ayushman Bharat project was for converting the Government’s role from a ‘Service Provider to a Financier’, as was told by the former Union Health Secretary Sujatha Rao, for the insurance companies to provide healthcare with profit motive replacing Central and State governments institution-based primary to tertiary healthcare infrastructures; instead of strengthening these to provide free and universal healthcare. Similarly, NDHM is converting the Government’s role from a ‘service provider to a broker’ for the private healthcare sector. 

 NDHM is a scheme for (i) privatisation of healthcare system replacing governments’ healthcare services; (ii) promoting ‘e-Pharmacy’ for online supply of medicines and ‘Telemedicine as mode of online diagnosis to digital prescription for the private sector and (iii) to make individual’s medical history and other details available for governmental control and for commercial purposes by the private sector including trial for new medicines of multinational drug companies.


Public Healthcare System and Privatisation Drive

AB-PMJAY was announced by the PM in his 2018 Independence Day speech and was launched on 25 September 2018. It was a major policy change of the Central government in healthcare. It completely reversed the healthcare policy of government since Independence. 

Public healthcare system evolved out of and remained important part of the planning process since the beginning. Health planning was integral part of the Community Development Programme. Based on the WHO 1978 Alma-Ata Declaration ‘Health for All by 2000 AD’, India adopted its first National Health Policy (NHP) in 1983 which was replaced by NHP-2002. Added to this were National Rural Health Mission, 2005 and National Urban Health Mission 2013 integrated in the National Health Mission 2013. ICDS has had an important contribution in healthcare while the ASHA scheme is an integral part of the public healthcare system. 

Modi government replaced NHP-2002 by its NHP-2017 putting healthcare in privatisation mode stating about the emergence of a private ‘robust healthcare industry’ growing at double digits and to “align the growth of private healthcare sector with public health goals” to “enable private sector contribution to making healthcare systems more effective, efficient, rational, safe, affordable and ethical.”

Data released by DIPP (Department of Industrial Policy and Promotion) shows that private hospital and diagnostic centres attracted FDI worth $4.83 billion during 2000-17. According to the National Family Health Survey-3, the private medical sector remains the primary source of healthcare for 70 per cent of households in urban areas and 63 per cent of households in rural areas. The burgeoning private sector hospitals having substantial FDI must have a growing market.

In this background AB-PMJAY replaced public healthcare system by insurance driven healthcare system the premium of which is being borne by the Central and State governments.  Profit motive of insurance companies in health sector aligned with health facility corporates (of hospitals, nursing homes, diagnostic centres etc) and private medicine companies. 

Now comes NDHM to target mainly those who are outside PM-JAY and proposes alignment of private doctors including payment of fees, corporate hospitals and other healthcare providers like diagnostic centres, pharmacies, insurance companies etc through its digital platform.


NITI Aayog’s Prescriptions 

 In one my articles, published in other journals in May 2020, on Modi government taking advantage of Covid-19 pandemic imposing huge burden on the working people and for profiteering of the corporates, cronies and foreign, I wrote as to how the NITI Aayog has analysed the situation and has five points’ conclusions promoting (i) Work From Home (WFH); (ii) Breaking Supply Chain out of China and India vying with some other countries to grab this opportunity and, hence, labour reforms, diluting FDI norms and speeding up corporatisation and privatisation etc. (iii) NITI Aayog also came to the conclusion that Covid-19 would cause phenomenal rise of ‘Tele-medicines’, an euphemism of the patient-doctor-prescription relation through IT and a mechanism to replace public health services network. “This is in addition to the insurance driven health services, including private hospitals in the loop, in the Aushman Bharat project already in place;” and (iv) Increasing Contactless Delivery like e-Commerce, e-Pharmacy. 

 Taking advantage of Covid-19, NITI Aayog had already prescribed about the last two points as in above – the ‘Tele-medicines’ and ‘e-Pharmacy’. NDHM is to operationalise it.


Personal ID & Medical Data

 NDHM has two modules as has already been mentioned – Personal Health ID and Personal Medical Data. Personal Medical Data will be available tio private companies and Government will control the Personal ID. That means individual’s medical history and other details will be available to private companies and will be in public domain. The consequences are unimaginable including their use for other commercial purposes and potential subject for trial of new medicines by the MNCs like Covid vaccines etc. 

 Government will control the personal data of the citizens through Health ID and may use it for any purpose including giving threats or trial under different laws. 


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Saturday, August 15, 2020

जस्टिस क्रष्णा अय्यर

 सुप्रीम कोर्ट का वह जज जिसे कभी भारत सरकार ने जेल में डाला था|


राज्यों के पुनर्गठन अधिनियम 1956 के द्वारा भारत की आंतरिक सीमाओं में काफी बदलाव आए और भाषा के आधार पर राज्यों की सीमाएं बनी|  


जिसे आज हम केरल राज्य के नाम से जानते हैं वह 1 नवंबर 1956 को अस्तित्व में आया| 


इसके एक साल बाद 1957 में भारत की पहली चुनी हुई वामपंथी सरकार अस्तित्व में आई| यह शायद दुनिया की दूसरी चुनी हुइ वामपंथी सरकार थी| इसके मुख्य मंत्री ईएमएस नम्बूदरीपाद थे| 


यह सरकार दो साल के अंदर ही बर्खास्त कर दी गई थी| 


इस सरकार के कारण एक नाम सामने आया वह नाम था वीआर कृष्णा अय्यर का जो इस सरकार में कानून गृह सिंचाई जेल और समाज कल्याण मंत्री रहे|


एक जज के रूप में कृष्णा अय्यर को भारत की न्याय व्यवस्था का भारतीय करण करने के लिए जाना जाता है जो आजादी के बाद अपने शुरुआती सालों में उपनिवेशी परम्परा से चल रही थी| 


कृष्णा अय्यर के फैसले आम आदमी को समझ में आने वाले होते थे हांलाकि कई बार उनकी भाषा ऐसी होती थी कि शब्दकोश की मदद लेनी पड़ती थी| 


चीफ जस्टिस सीकरी ने माना कि उनकी भाषा कई बार हम नहीं समझ पाते थे| 


जस्टिस कृष्णा अय्यर ने 'भारत के सर्वोच्च न्यायलय' को 'भारतीयों के लिए सर्वोच्च न्यायालय' बनाया था|


वे न्याय के लिए जोश से संघर्ष करने वाले इंसान थे और वे मानते थे कि बिना डरे न्याय देना हमारे संविधान की विशेषता है| 


जस्टिस कृष्णा अय्यर का एक आपराधिक और राजनैतिक इतिहास था जो किसी और जज का नहीं रहा|


कृष्णा अय्यर का जन्म 1915 को केरल के पलक्काड़ जिले के पालघाट में हुआ था| उनके पिता एक नामी वकील थे| 


अपनी कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद कृष्णा अय्यर 1938 में  मालाबार की अदालत में वकालत करने लगे| पिता पुत्र के मुवक्किलों में उद्योगपति जमींदार से लेकर गरीब किसान तक होते थे| 


कुछ समय में बेटे को लगने लगा कि वह अपनी आदर्शवादी सोच की  वजह से बेसहारा और कुचले हुए लोगों की तरफ खिंच रहा है| वह अमीर मुवक्किलों से मिले पैसे से गरीब लोगों के मुकदमें मुफ्त में लड़ने लगे|


केरल उस समय एक उथल पुथल का सामना कर रहा था| त्रावनकोर की रियासत आजाद हो  कर अमेरिका जैसा देश बनना चाह रही थी| लेकिन उस इलाके में मौजूद वामपंथियों को यह विचार पसंद नहीं आ रहा था| 


इलाके में फैले अकाल की वजह से किसान बड़ी संख्या में कम्युनिस्टों के साथ जुड़ते जा रहे थे| बार बार दंगे भड़क जाते थे| एक बार तो कम्युनिस्टों ने वहाँ अपनी सरकार भी घोषित कर दी थी हांलाकि त्रावनकोर की सेना ने इसे निर्दयता से कुचल दिया था|


18 जुलाई 1947 को त्रावनकोर के महाराजा ने एक शाही फरमान निकाला और त्रावनकोर को एक आजाद देश घोषित कर दिया| 25 जुलाई को शाही दीवान की जान पर हमला किया गया| 30 जुलाई को महाराजा ने माउन्टबेटन को पत्र लिख कर भारत संघ में शामिल होने की संधि पर दस्तखत करने के लिए अपनी सहमती भेज दी| 


1949 में त्रावनकोर भारत में शामिल हो गया| इसके बाद केरल में कम्युनिस्ट आन्दोलन मजबूत होता चला गया|


गरीबों के लिए काम करने वाले कृष्णा अय्यर इस सब से अलग नहीं रह पाए| मजदूरों का संघर्ष किसानों की लड़ाई इसके नेताओं की गिरफ्तारी इन आंदोलनों पर सरकारी कार्यवाही और आपराधिक प्रक्रिया चल रही थी| 


कृष्णा अय्यर इस सब के केंद्र में आ गये| वे किसान और मजदूर नेताओं के मुकदमें लड़ने लगे| कई बार हथियारबंद किसान नेताओं के मुकदमें भी वह बिना पैसा लिए लड़ते थे| 


वे अपने उन दिनों को याद करके कहते हैं कि मैं बिना किसी पार्टी का सदस्य बने एक नेता बन गया था| कम्युनिस्ट गांधीवादी और कांग्रेसी नेता कृष्णा अय्यर से मिलने आते थे| साल दर साल उनके काम ने उन्हें कम्युनिस्ट किसान और मजदूर नेताओं के मुकदमें लड़ने वाले के रूप में मशहूर कर दिया| 


वे ऐसे संवेदनशील मुकदमें भी लड़ते थे जिनमें हत्या और दंगे के आरोपी भी होते थे| वे कई बार जजों के ऊपर मजाकिया व्यंग भी कर देते थे| उनके साथियों ने और कई बार जजों तक ने उन्हें समझाया कि कि इस तरह कम्युनिस्टों के लिए अदालत में खड़े होकर अपना भविष्य बर्बाद मत करो|


लेकिन कृष्णा अय्यर ने इन बातों को सुना नहीं और वे अपनी न्याय की लड़ाई में लगे रहे| उन्होंने एक कानूनी सहायता सेवा भी शुरू करी जिसमें दस वकील मजदूरों और किसानों को कानूनी सहायता देते थे| 


मई 1948 को कृष्णा अय्यर को गिरफ्तार कर लिया गया| उन पर हिंसक कम्युनिस्टों की मदद करने और उन्हें छिपने की जगह देने का अरोप लगाया गया| 


उन पर सबसे मजेदार आरोप यह लगा कि उन्होंने अदालत को राजनैतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल किया है| हांलाकि पुलिस अदालत में अपने आरोप साबित नहीं कर पायी और एक महीने की जेल के बाद कृष्णा अय्यर बरी हो गये| 


लेकिन जेल के अपने इस अनुभव को वह कभी नहीं भुला पाये| 


वे बताते हैं; आप हवालात में बैठे हैं और बीच में सलाखें हैं जो आपको दुनिया से अलग करती हैं| और जब आपके दोस्त आपसे मिलने आते हैं तो वो आपको ऐसे देखते हैं जैसे चिड़ियाघर में बंद जानवर को देखते हैं| 


आपको शौच और पेशाब उसी कोठरी में करना होता है| और उस दौरान कोई आड़ नहीं होती पूरे समय पुलिस वाला आपको देखता रहता है| जैसे कि सलाखों के पीछे से आप जादू से गायब हो जायेंगे|     


वहां से उन्हें कन्नूर केन्द्रीय जेल ले जाया गया लेकिन वहाँ भी हालत वही थी| 


वह बताते हैं यहाँ भी भी ज़िन्दगी बहुत दयनीय थी| एक सीमेंट का फर्श था जिस पर आपको लेटना होता है| नीचे से कीड़े काटते हैं और ऊपर से मच्छरों का हमला होता है| यहाँ कोई प्राइवेसी नहीं होती सम्मान का कोई वजूद नहीं होता और अच्छे जीवन के लिए हालात असंभव हैं|


30 दिन की जेल की कैद ने उन्हें जो अनुभव दिया जिसका उन्होंने अपने बाद के जीवन में बहुत इस्तेमाल किया| उनके चार्ल्स शोभराज और सुनील बत्रा मामले में दिए गये फैसले में कैदियों के इंसानी गरिमा और सम्मान के मुद्दे पर महत्वपूर्ण फैसला है|  


एक बार सुप्रीम कोर्ट के जज चेल्मेश्वर राव ने कहा था कि कृष्णा अय्यर ने ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव देखे थे उसने उन्हें वह बनाया जो वह थे, आज के दिन तक वह अकेले सुप्रीम कोर्ट के जज हैं जिन्हें आजादी के बाद सरकार ने जेल में डाला था|


1952 में वे विधान सभा का चुनाव लड़े, उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में परचा भरा लेकिन उन्हें कम्युनिस्टों और इंडियन मुस्लिम लीग का समर्थन मिला था| उनके द्वारा लगातार सरकार को उनकी कमियाँ बताने का काम किया गया| वे संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों की बात करते थे| अब कृष्णा अय्यर एक समाज सुधारक और प्रमुख विपक्षी नेता के रूप में प्रसिद्ध हो गये| 


केरल राज्य 1956 में बना| कृष्णा अय्यर फिर से चुनाव लड़े| इसी चुनाव में ईएमएस नम्बूदरीपाद चुनाव जीते और भारत की पहली चुनी हुई सरकार बनी| हांलाकि कृष्णा अय्यर कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं थे फिर भी गरीबों के लिए किये गये उनके कामों और मद्रास विधान सभा में उनके अनुभव को देखते हुए उन्हें मंत्री बनाया गया| 


मंत्री के रूप में उन्होंने बहुत से ऐतिहासिक काम किये| केरल का भूमि सुधार जिसमें भूमि का मालिक जमीन जोतने वाले को बनाया गया था| जल संसाधनों को लेकर जो पहला मास्टर प्लान बना उसका श्रेय भी उन्हें ही जाता है| एक मंत्री के रूप में वह अपने जेल के दिनों को नहीं भूले| उन्होंने वे जीवन भर जेल सुधारों का काम करते रहे|


जब ईएमएस नम्बूदरीपाद ने घोषणा करी कि पुलिस का यह काम नहीं है कि वह किसी राजनैतिक पार्टी द्वारा किसानों या मजदूरों के आन्दोलन या उसके एक्टिविस्ट को दबाएँ, कृष्णा अय्यर ने इसका समर्थन किया और नई पुलिस पालिसी बनाई|


कानून मंत्री के रूप में न्याय पालिका में सुधार के लिए उन्होंने दस दिन ज्यादा बैठने का नियम बनाया ताकि पुराने मामले निपटाए जा सकें|

उन्होंने दहेज़ के खिलाफ कानून बनाया जो केन्द्रीय कानून से ज्यादा असरदार था इसके अलावा उन्होंने गरीबों को कर्ज से मुक्ति के लिए भी कानून बनाया| 


न्याय के लिए उनकी कोशिश इतनी गहरी थी कि वे जाति धर्म आर्थिक वर्ग और राजनैतिक रिश्तों के सभी भेदों को भूल कर सिर्फ न्याय के लिए अपनी जद्दोजहद में लगे रहते थे| 


ईएमएस नम्बूदरीपाद की सरकार को 1959 में बर्खास्त कर दिया गया| कृष्णा अय्यर 1960 का चुनाव लड़े| और सात वोटों से हारे बाद में अदालती फैसले के बाद वह विधान सभा में पहुंचे| 


1965 के चुनाव में वह हार गये और उन्हें फिर से अपने वकालत के पेशे में आने का मौका मिला| 


1968 में 52 साल की उम्र में उन्हें सीपीआइ(एम) की सरकार के समय केरल हाई कोर्ट का जज बनाया गया| वे तीन साल हाई कोर्ट की बेंच में रहे 1971 में उन्हें गजेन्द्र गडकर ला कमीशन में एक छोटे से कार्यकाल के लिए दिल्ली बुलाया गया| 


1973 में उनका सुप्रीम कोर्ट जाने का का समय हो गया था| लेकिन मुख्य न्यायधीश सीकरी और बम्बई बार का एक हिस्सा उनके राजनैतिक अतीत के कारण उनकी नियुक्ति का विरोध कर रहा था| यहाँ तक कि पूर्व सौलीसिटर जनरल सोली सोराबजी ने स्वीकार किया कि उन्होंने कृष्णा अय्यर की नियुक्ति का विरोध किया था लेकिन बाद में उनका काम देख कर वे उनके प्रशंसक बन गये| 


जस्टिस कृष्णा अय्यर पिछड़े लोगों के लिए न्याय के एक एक्टिविस्ट थे| अक्सर वे कानून को कमजोरों के पक्ष में घुमा देते थे| 


कृष्णा अय्यर कहते थे कि संविधान एक सामाजिक और आर्थिक न्याय का दर्शन है लेकिन अक्सर जज अपने सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण उसे देख नहीं पाते| जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट मुख्यतः ब्राह्मण और उच्च जातियों का है और उसका असर इसके फैसलों पर पड़ता है| 


जस्टिस कृष्णा अय्यर 14 नवम्बर 1980 को रिटायर हो गये और किसी दूसरी नियुक्ति के लालच में पड़े बिना सीधे केरल चले गये| वे पत्र पत्रिकाओं में लिखते रहे| लोगों का मानना था कि रिटायरमेंट ने उन्हें बेड़ियों से आजाद कर दिया है और वे अब लोगों के हकों के लिए अपना काम बेहतर कर पा रहे हैं|



Saturday, August 8, 2020

आज़ादी के इतिहास का एक पन्ना

  भारतीय लेनिन-:आजादी की लड़ाई में लाल बाल पाल का जिक्र जोर शोर से होता है।लाल का मतलब पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जिनको अंग्रेजों ने लाठियों से इतना मारा कि वो बाद में मर गए।उनकी मौत का बदला सहदेव राजगुरु और भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या करके ली।

इन्होंने ही लाहौर असेम्ब्ली में पब्लिक सेफ्टी एक्ट(जिससे क्राति को दबाया जाता)और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के विरोध में असेंबली में उस जगह बम फेंक दिया था जहां कोई नहीं था।भागे भी नहीं।विरोध में पर्चे बांटे कि गलत कानून न बनाया जाए।कहा कि हमने यह बम केवल इसलिए फेका कि बहरे कानों को ऊंची आवाज में सुनाया जाए।

मजे की बात अंग्रेजों का वही पब्लिक सेफ्टी एक्ट जिसका भगत सिंह विरोध कर रहे थे आजाद मुल्क की आवाज दबाने के लिए आज फिर से लागू है।भगत सिंह का नारा इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद का नाश हो बेमतलब हो चला है।प्रजातंत्र की जगह पूंजीवाद बैठ गया है।

सिख होने के बाद भी भगत सिंह ने केश और दाढ़ी कटवा दिया था।देश के आगे उनके लिए दीन महत्वहीन था।इत्तफाक़न भगत सिंह के जन्म पर उनके पिता व चाचा जेल से रिहा हुए थे।दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला(भाग्यवान)रखा।बाद में उन्हें भगत सिंह कहा जाने लगा।देशभक्ति उनके रक्त में थी।

गांधीजी भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए लगातार प्रयास करते रहे लेकिन सफल नहीं हुए।आखिर 23 साल के भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को ही सुखदेव और राजगुरु के साथ फांसी पर लटका दिया गया।

मृत शरीर को फिरोजपुर के पास मिट्टी के तेल से जला कर सतलज में फेंक दिया गया।

फांसी के बाद गांधीजी लाहौर पहुंचे।युवाओं को संबोधित किया।कहा"गांधी वापस जाओ""गांधी मुर्दाबाद"दोनों सही है।पर एक बात सोचो कि जब हमारा हिंदुत्व जघन्य अपराध के लिए फांसी का पक्षधर नहीं है तो फिर हम इन नौजवानों की फांसी के पक्षधर कैसे हो सकते हैं?

हम तो हैरत भरी निगाह से देखते हैं कि इतने दब्बू मुल्क में इतने दिलेर बच्चे पैदा किये हैं। हम तो चाहते हैं कि नौजवान ऐसी लड़ाई लड़ें कि किसी का खून न हो।पर कोई मजबूर करे तो हम भगत सिंह की भांति हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल जाएं।

यकीन मानिए कि मैं ही नहीं नेहरू वगैरह सारे परेशान थे कि इन नौजवानों को कैसे बचाया जाए जो खुद कहने के लिए तैयार नहीं थे कि वो सब निर्दोष हैं।

संघ हो कि मुस्लिम लीग किसी ने भगतसिंह की फांसी की आलोचना नहीं की।वजह थी उनकी नास्तिक और कम्युनिस्ट छवि।दोनों इदारे देश की आजादी से शुरू होकर दीन की आजादी की ओर मुड़ गए।एक ने आजादी हासिल कर ली दूसरा अभी भी संघर्षरत है।

इंसानी फितरत से दुनियां का कोई दीन अब समाधान नहीं रहा।सब के सब समस्या बन गये है।पहले जिसको जब अवसर मिला सबने दबंगई की थी।अब भी वही जारी है।बदला क्या है?पहले अनपढ मूर्खता करते थे अब पढे लिखे समझदार।

2007 में पांचजन्य ने 100 पृष्ठीय लेख मे यह जताने की कोशिश की कि भगत सिंह न कम्युनिस्ट थे न नास्तिक और न उन्होंने "मैं नास्तिक क्यों हूं"लिखा था।पर बात बनी नहीं।इसका अनुवाद तो श्रीमान पेरियार ने बहुत पहले कर दिया था।

नया निजाम आजादी की नई परिभाषा गढ़ रहा है।वो तब की आजादी को महज एक भूभाग की आजादी कहता है।असली आजादी सांस्कृतिक और धार्मिक आजादी को मानता है।जबकि भगत सिंह धर्म और संस्कृति को निमित्त मात्र समझते थे।

वो ऐसे भारत का सपना देखते थे जहां एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के शोषण पर रोक हो।उनकी आजादी का मतलब सिर्फ गोरी चमड़ी से आजादी हासिल करना नहीं था।बल्कि मेहनत करने वाले को मेहनत का हक मिलने से सब की आवाज सुने जाने से था।

अब यह अलग बात है कि आज राष्ट्र वाद सिर चढ़कर बोल रहा है। इतना की नास्तिकता और कम्युनिज्म के घोर विरोधियों को भी भगत सिंह में शहीद-ए-आजम नजर आ रहा है।

कोई सोच भी नहीं सकता की फांसी के फंदे पर झूलने के लिए जाते हुए तीनों जांबाज गुनगुना रहे थे।

"मेरा रंग दे बसंती चोला।"भारतीय लेनिन!


Monday, August 3, 2020

जेनी_मार्क्स

 

साम्यवाद के जन्मदाता #कार्ल_मार्क्स अपना अमर ग्रंथ ‘#दास_कैपिटल‘ लिखने में तल्लीन थे. इस कार्य के लिए उन्हें पूरा समय पुस्तकालयों से नोट वगैरह लेने में लगाना पड़ता था. ऐसे में परिवार का निर्वाह उनके लिए एक बड़ी परेशानी बन गया. उन्हें बच्चे भी पालने थे और अध्ययन सामग्री भी जुटानी थी. दोनों ही कार्यों के लिए उन्हें पैसा चाहिए था. इन विकट स्थितियों में मार्क्स की पत्नी आगे आई.

    उन्होंने पैसों की समस्या से निपटने के लिए एक गृह उद्योग शुरू किया. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस गृह उद्योग के लिये वो कबाडि़यों की दुकानों से पुराने कोट खरीदकर लाती और उन्हें काटकर बच्चों के लिए छोटे-छोटे कपड़े बनाती. इन कपड़ों को वे एक टोकरी में रख मोहल्ले में घूम बेच आती. आज शायद यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मार्क्स की पत्नी की इसी कर्मठता के कारण ही उन्हें ‘दास कैपिटल‘ जैसा ग्रंथ पढ़ने को मिला.
 
      महान दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रणेता कार्ल मार्क्स को जीवनपर्यंत घोर अभाव में जीना पड़ा. परिवार में सदैव आर्थिक संकट रहता था और चिकित्सा के अभाव में उनकी कई संतानें काल-कवलित हो गई. जेनी वास्तविक अर्थों में कार्ल मार्क्स की जीवनसंगिनी थी और उन्होंने अपने पति के आदर्शों और युगांतरकारी प्रयासों की सफलता के लिए स्वेच्छा से गरीबी और दरिद्रता में जीना पसंद किया.

जर्मनी से निर्वासित हो जाने के बाद मार्क्स लन्दन में आ बसे. लन्दन के जीवन का वर्णन जेनी ने इस प्रकार किया है – “मैंने फ्रेंकफर्ट जाकर चांदी के बर्तन गिरवी रख दिए और कोलोन में फर्नीचर बेच दिया. लन्दन के मंहगे जीवन में हमारी सारी जमापूँजी जल्द ही समाप्त हो गई. सबसे छोटा बच्चा जन्म से ही बहुत बीमार था. मैं स्वयं एक दिन छाती और पीठ के दर्द से पीड़ित होकर बैठी थी कि मकान मालकिन किराये के बकाया पाँच पौंड मांगने आ गई. उस समय हमारे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था. वह अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर आई थी. उन्होंने हमारी चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने, और दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क कर लिए. सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर मैं कठोर फर्श पर पड़ी हुई थी. दूसरे दिन हमें घर से निकाल दिया गया. उस समय पानी बरस रहा था और बेहद ठण्ड थी. पूरे वातावरण में मनहूसियत छाई हुई थी.”

    ऐसे में ही दवावाले, राशनवाले, और दूधवाला अपना-अपना बिल लेकर उनके सामने खड़े हो गए. मार्क्स परिवार ने बिस्तर आदि बेचकर उनके बिल चुकाए.

ऐसे कष्टों और मुसीबतों से भी जेनी की हिम्मत नहीं टूटी. वे बराबर अपने पति को ढाढस बांधती थीं कि वे धीरज न खोयें.

कार्ल मार्क्स के प्रयासों की सफलता में जेनी का अकथनीय योगदान था. वे अपने पति से हमेशा यह कहा करती थीं – “दुनिया में सिर्फ़ हम लोग ही कष्ट नहीं झेल रहे हैं.”

मित्रों, जेनी ने बहुत मेहनत की, दरिद्र जैसी जिन्दगी जी, फिर भी कार्ल मार्क्स का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया. जेनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि बहुत ही शानदार थी. जेनी प्रशिया के अभिजात वर्ग के एक प्रमुख परिवार Salzwedel में पैदा हुई थी.

   जेनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि
नाम जोहन्ना बर्था जूली जेनी वॉन Westphalen
जन्म 12 फ़रवरी 1814
मृत्यु 2 दिसंबर, 1881
पिता लुडविग वॉन Westphalen (1770-1842), Salzwedel में और ट्रायर में “Regierungsrat”(सर्वोच्च अधिकारी) के रूप में कार्य करते थे.

   मित्रों, इतिहास ऐसे गुमनाम सितारों से भरा हुआ है. इतिहास गवाह है, हर कामयाब पुरुष के पीछे उसकी पत्नी की बहुत बड़ी भूमिका रही है. जेनी की महानता इस तथ्य को साबित करती है.