आज़ादी के इतिहास का एक पन्ना
भारतीय लेनिन-:आजादी की लड़ाई में लाल बाल पाल का जिक्र जोर शोर से होता है।लाल का मतलब पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जिनको अंग्रेजों ने लाठियों से इतना मारा कि वो बाद में मर गए।उनकी मौत का बदला सहदेव राजगुरु और भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या करके ली।
इन्होंने ही लाहौर असेम्ब्ली में पब्लिक सेफ्टी एक्ट(जिससे क्राति को दबाया जाता)और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के विरोध में असेंबली में उस जगह बम फेंक दिया था जहां कोई नहीं था।भागे भी नहीं।विरोध में पर्चे बांटे कि गलत कानून न बनाया जाए।कहा कि हमने यह बम केवल इसलिए फेका कि बहरे कानों को ऊंची आवाज में सुनाया जाए।
मजे की बात अंग्रेजों का वही पब्लिक सेफ्टी एक्ट जिसका भगत सिंह विरोध कर रहे थे आजाद मुल्क की आवाज दबाने के लिए आज फिर से लागू है।भगत सिंह का नारा इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद का नाश हो बेमतलब हो चला है।प्रजातंत्र की जगह पूंजीवाद बैठ गया है।
सिख होने के बाद भी भगत सिंह ने केश और दाढ़ी कटवा दिया था।देश के आगे उनके लिए दीन महत्वहीन था।इत्तफाक़न भगत सिंह के जन्म पर उनके पिता व चाचा जेल से रिहा हुए थे।दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला(भाग्यवान)रखा।बाद में उन्हें भगत सिंह कहा जाने लगा।देशभक्ति उनके रक्त में थी।
गांधीजी भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए लगातार प्रयास करते रहे लेकिन सफल नहीं हुए।आखिर 23 साल के भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को ही सुखदेव और राजगुरु के साथ फांसी पर लटका दिया गया।
मृत शरीर को फिरोजपुर के पास मिट्टी के तेल से जला कर सतलज में फेंक दिया गया।
फांसी के बाद गांधीजी लाहौर पहुंचे।युवाओं को संबोधित किया।कहा"गांधी वापस जाओ""गांधी मुर्दाबाद"दोनों सही है।पर एक बात सोचो कि जब हमारा हिंदुत्व जघन्य अपराध के लिए फांसी का पक्षधर नहीं है तो फिर हम इन नौजवानों की फांसी के पक्षधर कैसे हो सकते हैं?
हम तो हैरत भरी निगाह से देखते हैं कि इतने दब्बू मुल्क में इतने दिलेर बच्चे पैदा किये हैं। हम तो चाहते हैं कि नौजवान ऐसी लड़ाई लड़ें कि किसी का खून न हो।पर कोई मजबूर करे तो हम भगत सिंह की भांति हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल जाएं।
यकीन मानिए कि मैं ही नहीं नेहरू वगैरह सारे परेशान थे कि इन नौजवानों को कैसे बचाया जाए जो खुद कहने के लिए तैयार नहीं थे कि वो सब निर्दोष हैं।
संघ हो कि मुस्लिम लीग किसी ने भगतसिंह की फांसी की आलोचना नहीं की।वजह थी उनकी नास्तिक और कम्युनिस्ट छवि।दोनों इदारे देश की आजादी से शुरू होकर दीन की आजादी की ओर मुड़ गए।एक ने आजादी हासिल कर ली दूसरा अभी भी संघर्षरत है।
इंसानी फितरत से दुनियां का कोई दीन अब समाधान नहीं रहा।सब के सब समस्या बन गये है।पहले जिसको जब अवसर मिला सबने दबंगई की थी।अब भी वही जारी है।बदला क्या है?पहले अनपढ मूर्खता करते थे अब पढे लिखे समझदार।
2007 में पांचजन्य ने 100 पृष्ठीय लेख मे यह जताने की कोशिश की कि भगत सिंह न कम्युनिस्ट थे न नास्तिक और न उन्होंने "मैं नास्तिक क्यों हूं"लिखा था।पर बात बनी नहीं।इसका अनुवाद तो श्रीमान पेरियार ने बहुत पहले कर दिया था।
नया निजाम आजादी की नई परिभाषा गढ़ रहा है।वो तब की आजादी को महज एक भूभाग की आजादी कहता है।असली आजादी सांस्कृतिक और धार्मिक आजादी को मानता है।जबकि भगत सिंह धर्म और संस्कृति को निमित्त मात्र समझते थे।
वो ऐसे भारत का सपना देखते थे जहां एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के शोषण पर रोक हो।उनकी आजादी का मतलब सिर्फ गोरी चमड़ी से आजादी हासिल करना नहीं था।बल्कि मेहनत करने वाले को मेहनत का हक मिलने से सब की आवाज सुने जाने से था।
अब यह अलग बात है कि आज राष्ट्र वाद सिर चढ़कर बोल रहा है। इतना की नास्तिकता और कम्युनिज्म के घोर विरोधियों को भी भगत सिंह में शहीद-ए-आजम नजर आ रहा है।
कोई सोच भी नहीं सकता की फांसी के फंदे पर झूलने के लिए जाते हुए तीनों जांबाज गुनगुना रहे थे।
"मेरा रंग दे बसंती चोला।"भारतीय लेनिन!
सुखदेव सही कर लीजिए,,,, बहुत ही बढिया विश्लेषण
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