अब जबकि, कोई महामारी अकल्पनीय वैश्विक संकट का रूप लेते हुए हमारे देश में भी कोहराम मचाने को आ पहुंची है तो अहसास होता है कि स्वास्थ्य तंत्र का सरकारी सिस्टम क्यों मजबूत होना चाहिये।
हम इटली की हालत देख रहे हैं जो जर्मनी और फ्रांस के बाद यूरोजोन की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। आज की खबरों में हमने पढ़ा कि वहां बीते 24 घंटों में कोरोना वायरस के कारण 475 मौतें रिकार्ड की गई हैं, जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि संख्या इससे भी ज्यादा हो सकती है क्योंकि इटली का मेडिकल सिस्टम दुरुस्त न होने के कारण दूर दराज के क्षेत्रों में बहुत सारे लोगों की जांच ही नहीं हो सकी और उनकी मौत को कोरोना प्रभावितों के दायरे में नहीं रखा गया।
बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद इटली बीते एक-डेढ़ दशक से गहरे आर्थिक संकट से घिरा रहा है। एक दौर में तो स्थिति यहां तक आ गई कि राशि इकट्ठी करने के प्रयासों के तहत सरकार द्वारा जारी दस वर्षों के इतालवी बांड को भी खरीदारों के लाले पड़ गए थे।
बस...क्या था, अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग ने शोर मचाना शुरू किया कि इटली का सरकारी खर्च बहुत अधिक है और संकट से निपटने के लिये सरकारी खर्चों में कटौती बहुत जरूरी है।
किसी भी अर्थव्यवस्था में जब सरकारी खर्चों में कटौती की मुहिम शुरू होती है तो उसका सबसे पहला शिकार सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य का सिस्टम होता है। इटली में भी यही हुआ।
आज जब इटली किसी आकस्मिक महामारी की चपेट में आया तो उसका ध्वस्त हो चुका मेडिकल सिस्टम चुनौतियों से निपटने में अक्षम साबित हुआ। वहां जनता की जरूरतों के अनुपात में पर्याप्त डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की कमी है, चिकित्सा उपकरणों का अभाव है। नतीजा वहां के लोगों को भुगतना पड़ रहा है। खबरें बताती हैं कि जिस रफ्तार से वहां संक्रमण बढ़ रहा है उस अनुपात में लोगों का टेस्ट नहीं हो पा रहा और संक्रमित व्यक्ति वायरस के फैलाव के वाहक बन कर समस्या को और अधिक बढाते जा रहे हैं।
जरा इस त्रासदी पर गौर करें। अस्पतालों, डॉक्टरों, सहयोगी स्टाफ और चिकित्सा उपकरणों की कमी के कारण इटली में कोरोना से संक्रमित बूढ़े लोगों को ईश्वर के भरोसे छोड़ कर अपेक्षाकृत युवा लोगों के इलाज पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
लानत है ऐसे सिस्टम को, जहां फोरलेन और फ्लाईओवर को विकास के मानकों के रूप में स्थापित कर अस्पतालों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों को सरकारी खर्च के लिये बोझ मान लिया गया हो।
उपेक्षा का शिकार हो कर बिना उचित इलाज के मरने वाला इटली का कोरोना संक्रमित हर वृद्ध व्यक्ति इस अवधारणा के गाल पर तमाचा है जिसमें आम लोगों की चिकित्सा पर खर्च को सरकारों के लिये बोझ मान लिया गया है।
जहां आर्थिक संकट गहराया, पहली कटौती शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में करो क्योंकि बेशुमार मुनाफे के लालच में जीभ लपलपाती निजी पूंजी इन कमाऊ क्षेत्रों में आधिपत्य स्थापित करने को पहले से तैयार बैठी है। सरकारें अपनी चादर जितनी समेटती जाएंगी, निजी पूंजी की चादर उतनी फैलती जाएगी।
कोरोना संकट चीन से जाकर यूरोप में पसर गया है और अब एशिया में हाहाकार मचाने को फैलता जा रहा है।
यूरोप के देश इस संकट से निपटने के लिये निजी पूंजी द्वारा संचालित अस्पतालों पर भरोसा नहीं कर रहे। उनका सरकारी मेडिकल सिस्टम एशियाई देशों के मुकाबले बेहतर है और निजी अस्पतालों की निगहबानी के लिये नियामक तंत्र भी एशियाई देशों के मुकाबले मजबूत और सक्रिय है। तथापि, स्पेन ने कोरोना संकट से निपटने के लिये तमाम निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया।
स्पेन का यह कदम बताता है कि इतनी व्यापक मानवीय त्रासदी से निपटने में लोगों को निजी अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता और सरकारों को ही सामने आना होगा।
भारत में भी आज केंद्र और राज्य सरकारें ही सामने आ रही हैं। जैसा भी है, सरकारी मेडिकल सिस्टम ही कोरोना से युद्ध के अगले मोर्चे पर आ खड़ा हुआ है। सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों की छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं, उन्हें लगातार ड्यूटी पर बने रहने के निर्देश जारी किए गए हैं, सरकारी डॉक्टर कई-कई दिनों से अपने घर नहीं जा पा रहे हैं, एक-एक डॉक्टर तीन-तीन डॉक्टरों के बराबर काम कर रहे हैं और सहयोगी स्टाफ पर काम का दबाव इतना बढ़ गया है कि उनमें से अनेक के बीमार पड़ने की खबरें भी आने लगी हैं।
यह कोई छिपी बात नहीं है कि सरकारी खर्च कम करने के नाम पर देश भर के सरकारी अस्पतालों में जरूरत के अनुसार डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की नियुक्तियां नहीं की गई हैं और हर जगह इनकी इतनी कमी है कि आम लोगों का सामान्य इलाज भी मुश्किल है, महामारी की तो बात ही क्या। यही हाल चिकित्सा उपकरणों की आपूर्त्ति का भी है जो आवश्यकता से बेहद कम हैं।
आपके पास था सरकारी मेडिकल सिस्टम। जैसा भी था...और बीते दशकों में सरकारों ने इसे जितना भी कमजोर किया हो...वही सरकारी सिस्टम आज कोरोना संकट के सामने मोर्चे पर आगे खड़ा है। आम लोगों का सहारा यही सिस्टम है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितने लोगों का आयुष्मान बीमा योजना का कार्ड बना है और वे इस योजना का लाभ लेकर निजी अस्पतालों के आरामदेह बिस्तर पर जा कर लेट सकते हैं।
मोदी जी के नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को हमने अभी पिछले वर्ष ही टीवी पर नफ़ीस अंग्रेजी में यह बोलते सुना था कि 'एलिमेंटरी एडुकेशन' और 'मेडिकल सिस्टम' का 'कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन' होना चाहिये और जो गरीब हैं उन्हें फीस भरने के लिये सरकार अलग से सहायता दे सकती है। नीति आयोग तो देश के तमाम सरकारी जिला अस्पतालों में निजी पूंजी के निवेश के लिये एक कार्य योजना पर काम भी कर रहा है।
आज नीति आयोग को एक कार्य दल बनाना चाहिये जो इस पर रिसर्च करे कि वर्त्तमान कोरोना संकट से निपटने में तीन सितारा से लेकर पांच सितारा और सात सितारा प्राइवेट अस्पतालों की कितनी और कैसी भूमिका है। आखिर यह राष्ट्रीय आपदा है और देश की गति थम गई है। तो...भव्य और सुविधासंपन्न अट्टालिकाओं में संचालित निजी अस्पताल, जिनके मालिकान देशभक्ति की कसमें खाते रहते हैं, इस व्यापक मानवीय त्रासदी के समय देश के आम लोगों के लिये क्या कर रहे हैं?
देश अभी कोरोना संकट के दूसरे स्टेज में है लेकिन हालात खराब होते जा रहे हैं और संकट गहराता जा रहा है। इटली का सरकारी मेडिकल सिस्टम यूरोपीय मानकों के मुताबिक ध्वस्त होने के कगार पर जरूर था, लेकिन अभी भी वह आनुपातिक रूप से भारत से बेहतर है। आखिरकार, महज 6 करोड़ 50 लाख जनसंख्या वाला इटली, जिसकी प्रति व्यक्ति आय भारत के मुकाबले बहुत अधिक है, एक धनी और विकसित देश ही है। लेकिन, स्वास्थ्य खर्च में बीते दशक में अपेक्षाओं के अनुरूप सरकारी निवेश न करने का ख़ामियाजा आज उसके आम लोगों को झेलना पड़ रहा है और जिन बुजुर्गों की बुजुर्गियत पर कभी इटली को नाज हुआ करता था, आज उन्हें मरने के लिये अकेला छोड़ दिये जाने की मर्मान्तक खबरें आ रही हैं।
गोरखपुर और मुजफ़्फ़रपुर में गरीब, निरीह बच्चों की उचित चिकित्सा के अभाव में बड़े पैमाने पर अकाल मौत ने हमारे ध्वस्त मेडिकल सिस्टम की लाचारी उजागर कर दी थी, लेकिन देशभक्ति और रामभक्ति के शोर में उनके विवश और व्याकुल मां-बाप का करुण विलाप सुना नहीं जा सका। आज कोरोना संकट देश को झकझोरने को सामने है और यह इस देश के लोगों को सोचना है कि सरकारी मेडिकल सिस्टम को मजबूत करने में उनका कल्याण है या नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कार्य कर रहे नीति आयोग के इस दृष्टिकोण में है कि स्वास्थ्य तंत्र के अधिकाधिक निजीकरण में ही स्वास्थ्य समस्याओं का निदान है।
हम ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि यह आकस्मिक और जानलेवा संकट हमारे देश पर कहर बन कर न टूटे, क्योंकि महामारी का प्रकोप बढ़ने की स्थिति में हमारा मेडिकल सिस्टम इस संकट को झेलने के लिये आवश्यक आधारभूत संरचना से लैस नहीं है।
हालांकि, मंदिरों-मस्जिदों-गिरिजाघरों सहित तमाम उपासना स्थलों को बंद किया जा रहा है और उन मूर्त्तियों या ईश्वरीय प्रतीकों को भी विश्राम दिया जा रहा है जिनके सामने हम प्रार्थना कर सकते थे।
तो...ईश्वर के दूसरे रूप डॉक्टरों, सहयोगी मेडिकल कार्यकर्त्ताओं और उनके मंदिरों के रूप में स्थापित अस्पतालों के ऊपर ही हमारा भरोसा है।
यह वह समय है जब हमें यह अहसास हो रहा है कि किसी ईश्वर के भव्य मंदिर के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपयों के खर्च से अधिक, बल्कि बहुत बहुत अधिक जरूरी है कि स्कूल और अस्पताल रूपी अधिकाधिक मंदिर बनाए जाएं और उनमें समाज के प्रतिभाशाली युवाओं को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा दे कर डॉक्टर और कंपाउंडर के रूप में नियुक्त कर पूरी मानवता को ईश्वर के दूसरे रूप की छाया दी जाए।
हम इटली की हालत देख रहे हैं जो जर्मनी और फ्रांस के बाद यूरोजोन की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। आज की खबरों में हमने पढ़ा कि वहां बीते 24 घंटों में कोरोना वायरस के कारण 475 मौतें रिकार्ड की गई हैं, जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि संख्या इससे भी ज्यादा हो सकती है क्योंकि इटली का मेडिकल सिस्टम दुरुस्त न होने के कारण दूर दराज के क्षेत्रों में बहुत सारे लोगों की जांच ही नहीं हो सकी और उनकी मौत को कोरोना प्रभावितों के दायरे में नहीं रखा गया।
बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद इटली बीते एक-डेढ़ दशक से गहरे आर्थिक संकट से घिरा रहा है। एक दौर में तो स्थिति यहां तक आ गई कि राशि इकट्ठी करने के प्रयासों के तहत सरकार द्वारा जारी दस वर्षों के इतालवी बांड को भी खरीदारों के लाले पड़ गए थे।
बस...क्या था, अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग ने शोर मचाना शुरू किया कि इटली का सरकारी खर्च बहुत अधिक है और संकट से निपटने के लिये सरकारी खर्चों में कटौती बहुत जरूरी है।
किसी भी अर्थव्यवस्था में जब सरकारी खर्चों में कटौती की मुहिम शुरू होती है तो उसका सबसे पहला शिकार सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य का सिस्टम होता है। इटली में भी यही हुआ।
आज जब इटली किसी आकस्मिक महामारी की चपेट में आया तो उसका ध्वस्त हो चुका मेडिकल सिस्टम चुनौतियों से निपटने में अक्षम साबित हुआ। वहां जनता की जरूरतों के अनुपात में पर्याप्त डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की कमी है, चिकित्सा उपकरणों का अभाव है। नतीजा वहां के लोगों को भुगतना पड़ रहा है। खबरें बताती हैं कि जिस रफ्तार से वहां संक्रमण बढ़ रहा है उस अनुपात में लोगों का टेस्ट नहीं हो पा रहा और संक्रमित व्यक्ति वायरस के फैलाव के वाहक बन कर समस्या को और अधिक बढाते जा रहे हैं।
जरा इस त्रासदी पर गौर करें। अस्पतालों, डॉक्टरों, सहयोगी स्टाफ और चिकित्सा उपकरणों की कमी के कारण इटली में कोरोना से संक्रमित बूढ़े लोगों को ईश्वर के भरोसे छोड़ कर अपेक्षाकृत युवा लोगों के इलाज पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
लानत है ऐसे सिस्टम को, जहां फोरलेन और फ्लाईओवर को विकास के मानकों के रूप में स्थापित कर अस्पतालों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों को सरकारी खर्च के लिये बोझ मान लिया गया हो।
उपेक्षा का शिकार हो कर बिना उचित इलाज के मरने वाला इटली का कोरोना संक्रमित हर वृद्ध व्यक्ति इस अवधारणा के गाल पर तमाचा है जिसमें आम लोगों की चिकित्सा पर खर्च को सरकारों के लिये बोझ मान लिया गया है।
जहां आर्थिक संकट गहराया, पहली कटौती शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में करो क्योंकि बेशुमार मुनाफे के लालच में जीभ लपलपाती निजी पूंजी इन कमाऊ क्षेत्रों में आधिपत्य स्थापित करने को पहले से तैयार बैठी है। सरकारें अपनी चादर जितनी समेटती जाएंगी, निजी पूंजी की चादर उतनी फैलती जाएगी।
कोरोना संकट चीन से जाकर यूरोप में पसर गया है और अब एशिया में हाहाकार मचाने को फैलता जा रहा है।
यूरोप के देश इस संकट से निपटने के लिये निजी पूंजी द्वारा संचालित अस्पतालों पर भरोसा नहीं कर रहे। उनका सरकारी मेडिकल सिस्टम एशियाई देशों के मुकाबले बेहतर है और निजी अस्पतालों की निगहबानी के लिये नियामक तंत्र भी एशियाई देशों के मुकाबले मजबूत और सक्रिय है। तथापि, स्पेन ने कोरोना संकट से निपटने के लिये तमाम निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया।
स्पेन का यह कदम बताता है कि इतनी व्यापक मानवीय त्रासदी से निपटने में लोगों को निजी अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता और सरकारों को ही सामने आना होगा।
भारत में भी आज केंद्र और राज्य सरकारें ही सामने आ रही हैं। जैसा भी है, सरकारी मेडिकल सिस्टम ही कोरोना से युद्ध के अगले मोर्चे पर आ खड़ा हुआ है। सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों की छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं, उन्हें लगातार ड्यूटी पर बने रहने के निर्देश जारी किए गए हैं, सरकारी डॉक्टर कई-कई दिनों से अपने घर नहीं जा पा रहे हैं, एक-एक डॉक्टर तीन-तीन डॉक्टरों के बराबर काम कर रहे हैं और सहयोगी स्टाफ पर काम का दबाव इतना बढ़ गया है कि उनमें से अनेक के बीमार पड़ने की खबरें भी आने लगी हैं।
यह कोई छिपी बात नहीं है कि सरकारी खर्च कम करने के नाम पर देश भर के सरकारी अस्पतालों में जरूरत के अनुसार डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की नियुक्तियां नहीं की गई हैं और हर जगह इनकी इतनी कमी है कि आम लोगों का सामान्य इलाज भी मुश्किल है, महामारी की तो बात ही क्या। यही हाल चिकित्सा उपकरणों की आपूर्त्ति का भी है जो आवश्यकता से बेहद कम हैं।
आपके पास था सरकारी मेडिकल सिस्टम। जैसा भी था...और बीते दशकों में सरकारों ने इसे जितना भी कमजोर किया हो...वही सरकारी सिस्टम आज कोरोना संकट के सामने मोर्चे पर आगे खड़ा है। आम लोगों का सहारा यही सिस्टम है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितने लोगों का आयुष्मान बीमा योजना का कार्ड बना है और वे इस योजना का लाभ लेकर निजी अस्पतालों के आरामदेह बिस्तर पर जा कर लेट सकते हैं।
मोदी जी के नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को हमने अभी पिछले वर्ष ही टीवी पर नफ़ीस अंग्रेजी में यह बोलते सुना था कि 'एलिमेंटरी एडुकेशन' और 'मेडिकल सिस्टम' का 'कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन' होना चाहिये और जो गरीब हैं उन्हें फीस भरने के लिये सरकार अलग से सहायता दे सकती है। नीति आयोग तो देश के तमाम सरकारी जिला अस्पतालों में निजी पूंजी के निवेश के लिये एक कार्य योजना पर काम भी कर रहा है।
आज नीति आयोग को एक कार्य दल बनाना चाहिये जो इस पर रिसर्च करे कि वर्त्तमान कोरोना संकट से निपटने में तीन सितारा से लेकर पांच सितारा और सात सितारा प्राइवेट अस्पतालों की कितनी और कैसी भूमिका है। आखिर यह राष्ट्रीय आपदा है और देश की गति थम गई है। तो...भव्य और सुविधासंपन्न अट्टालिकाओं में संचालित निजी अस्पताल, जिनके मालिकान देशभक्ति की कसमें खाते रहते हैं, इस व्यापक मानवीय त्रासदी के समय देश के आम लोगों के लिये क्या कर रहे हैं?
देश अभी कोरोना संकट के दूसरे स्टेज में है लेकिन हालात खराब होते जा रहे हैं और संकट गहराता जा रहा है। इटली का सरकारी मेडिकल सिस्टम यूरोपीय मानकों के मुताबिक ध्वस्त होने के कगार पर जरूर था, लेकिन अभी भी वह आनुपातिक रूप से भारत से बेहतर है। आखिरकार, महज 6 करोड़ 50 लाख जनसंख्या वाला इटली, जिसकी प्रति व्यक्ति आय भारत के मुकाबले बहुत अधिक है, एक धनी और विकसित देश ही है। लेकिन, स्वास्थ्य खर्च में बीते दशक में अपेक्षाओं के अनुरूप सरकारी निवेश न करने का ख़ामियाजा आज उसके आम लोगों को झेलना पड़ रहा है और जिन बुजुर्गों की बुजुर्गियत पर कभी इटली को नाज हुआ करता था, आज उन्हें मरने के लिये अकेला छोड़ दिये जाने की मर्मान्तक खबरें आ रही हैं।
गोरखपुर और मुजफ़्फ़रपुर में गरीब, निरीह बच्चों की उचित चिकित्सा के अभाव में बड़े पैमाने पर अकाल मौत ने हमारे ध्वस्त मेडिकल सिस्टम की लाचारी उजागर कर दी थी, लेकिन देशभक्ति और रामभक्ति के शोर में उनके विवश और व्याकुल मां-बाप का करुण विलाप सुना नहीं जा सका। आज कोरोना संकट देश को झकझोरने को सामने है और यह इस देश के लोगों को सोचना है कि सरकारी मेडिकल सिस्टम को मजबूत करने में उनका कल्याण है या नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कार्य कर रहे नीति आयोग के इस दृष्टिकोण में है कि स्वास्थ्य तंत्र के अधिकाधिक निजीकरण में ही स्वास्थ्य समस्याओं का निदान है।
हम ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि यह आकस्मिक और जानलेवा संकट हमारे देश पर कहर बन कर न टूटे, क्योंकि महामारी का प्रकोप बढ़ने की स्थिति में हमारा मेडिकल सिस्टम इस संकट को झेलने के लिये आवश्यक आधारभूत संरचना से लैस नहीं है।
हालांकि, मंदिरों-मस्जिदों-गिरिजाघरों सहित तमाम उपासना स्थलों को बंद किया जा रहा है और उन मूर्त्तियों या ईश्वरीय प्रतीकों को भी विश्राम दिया जा रहा है जिनके सामने हम प्रार्थना कर सकते थे।
तो...ईश्वर के दूसरे रूप डॉक्टरों, सहयोगी मेडिकल कार्यकर्त्ताओं और उनके मंदिरों के रूप में स्थापित अस्पतालों के ऊपर ही हमारा भरोसा है।
यह वह समय है जब हमें यह अहसास हो रहा है कि किसी ईश्वर के भव्य मंदिर के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपयों के खर्च से अधिक, बल्कि बहुत बहुत अधिक जरूरी है कि स्कूल और अस्पताल रूपी अधिकाधिक मंदिर बनाए जाएं और उनमें समाज के प्रतिभाशाली युवाओं को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा दे कर डॉक्टर और कंपाउंडर के रूप में नियुक्त कर पूरी मानवता को ईश्वर के दूसरे रूप की छाया दी जाए।
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